अशोक जी एक बाल स्वयंसेवक थे और घर में भी उन्हें संस्कार में ही न केवल अपना कार्य स्वयं करने की शिक्षा मिली थी बल्कि दूसरों की सहायता के लिए निरंतर तत्पर रहने का प्रबल संकल्प मानों विरासत में प्राप्त था संघ में कई बड़े दायित्वों पर पहुंचकर और विश्व हिन्दू परिषद् का शीर्ष पदाधिकारी होने के उपरांत भी कभी उन्होंने अपना कोई कार्य या उत्तरदायित्व किसी अधीनस्थ पदाधिकारी या कार्यकर्ता के भरोंसे नहीं छोड़ा । वे स्वावलंबन का जीवन जीने के पक्षधर थे और यह उन्होंने जीवन के अंतिम समय तक भी बखूबी निभाया। किसी सामान्य कार्यकर्ता के घर में जब जाते थे तो कहीं भी बडप्पन अथवा अहं भाव का लेशमात्र प्रदर्शन नहीं सहज रूप में अपने छोटे-छोटे कार्य स्वयं करने का पूर्ण आग्रह रखते थे। विहिप मुख्यालय संकटमोचन आश्रम रामाकृष्णपुरम् हो अथवा प्रयाग स्थित महावीर भवन सभी जगह कार्यकर्ताओं में अपने प्रेरणापुरुष के दर्शन व कार्य को हाथ में लेने की होड़ लगी रहती थी लेकिन अशोक जी ने सबको यही मंत्र दिया कि यथाशक्ति दूसरों की सहायता हम तभी कर सकते हैं जब हम में स्वयंसेवकत्व भाव होगा। जब हम अपने दैनिक जीवन के छोटे-छोटे कार्य स्वयं करेंगे तो हमें आनंद भी आएगा और संतुष्टि भी होगी। इसी तरह हमे दूसरों की सेवा के लिए स्वयं को सदैव तत्पर रखना चाहिए क्योंकि जीव सेवा एवं मानव सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है, उसमें हम जितनी तन्मयता से रमेंगे प्रभु हमारे मनोरथ उसी अनुपात में पूर्ण करेंगे।