स्व. अशोक सिंहल जी के सान्निध्य में कई वर्षों तक रहने वाले विहिप के उपाध्यक्ष श्री ओमप्रकाश सिंहल ने कहा कि मुझे 1961 से लेकर अशोक जी के जीने तक उनके स्नेह और निकटता का गौरव प्राप्त हुआ। अशोक जी महामानव थे। उन्होंने जीते जी अपने स्वरूप को पहचान लिया था। रामचरितमानस में प्रसंग आता है कि दशरथ जी की बड़ी इच्छा थी कि वे राम का राज्याभिषेक देखें उनके जीते यह संयोग संभव नहीं हो पाया लेकिन लंका ध्वंस के बाद ब्रहमलीन राजा दशरथ राम का राजतिलक देखने अयोध्या आये थे। उसी प्रकार हमारे अशोक सिंहल जी हमारे हृदयों में बस रहे हैं और जिस दिन अयोध्या में भव्य श्रीराम मन्दिर का निर्माण होगा वे राजा दशरथ की तरह उस गौरवमय क्षण के साक्षी बनेंगे।
18 नवम्बर को निगमबोध घाट पर किसी ने पूछा अशोक सिंहल जी में विलक्षणता क्या थी सतपुरुष थे, असाधारण, अनोखी विलक्षणता व विशिष्टता थी। निगमबोध घाट का व्यक्तिरूप अशोक जी के व्यक्तित्व का परिचय दिखाने के लिए काफी है। देश विदेश में उनकी स्मृति में हो रही सभाए इसका प्रमाण है। कुछ दिन पहले वे हमारे बीच में थे, आज शरीर में नहीं हैं। समय पर विभिन्न आंदोलनों में मैंने उन्हें देखा। 1965 में जब मैं छात्र था, शास्त्री जी की सरकार केन्द्र में थी। सरकार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू.) से हिन्दू शब्द हटाना चाहती थी। लोकसभा में कई बार प्रश्न उठे। काशी में इसका तीव्र विरोध हुआ। विरोध में जो हुंकार भरी गई उस आंदोलन के पुरोधा अशोक जी के सामने सरकार को घुटने टेकने पड़े। आपातकाल में 29 दिसम्बर 1976 को विद्यार्थी परिषद् का कार्य संभाल रहे थे अशोक जी। 16 वर्ष की युवावस्था में 1942 से अशोक जी का सार्वजनिक जीवन शुरू हो गया था। उसका उत्तरकाल 1980 में तब दिखाई पड़ता है जब विहिप मे अशोक सिंहल जी के रूप में एक युवा पहुंचा। अशोक जी ने विहिप को अपनी साधना से श्रीराम की लीला का संकल्प बनाया। असंगठित और बिखरे हुए हिन्दू समाज को तथा सारे संत महात्माओं को एक मंच पर लाए। चमत्कारी व्यक्तित्व के धनी अशोक सिंहल जी ने सबको एक किया अपने जन्मदिन से पहले 30 सितम्बर 2015 को डा. सुब्रहमण्यम स्वामी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस की और राम मन्दिर की राह में आने वाली कानूनी अड़चनों को दूर करने का इरादा व्यक्त किया। अशोक जी वास्तव में उदार मानव थे। वैचारिक विरोध के बावजूद राम मन्दिर के सही रास्ता और हल ढूंढ निकाला।
बद्रीभगत झण्डेवालान मन्दिर समिति के महामंत्री श्री नवीन कपूर ने कहा कि अशोक सिंहल जी भारत माता के सच्चे सपूत थे। एक कर्मयोगी के तरह उनका जीवन रहा उन्होंने झण्डेवालान मन्दिर को नया स्वरूप दिलाया। इसके निर्माण में सोसाइटी को मजबूत बनाने के लिए ठोस कार्य किए। वे मन्दिर के संस्थापक न्यासी थे। आज यह मन्दिर बहुत प्रतिष्ठित है।
आध्यात्मिक व्यक्तित्व एवं भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री सतपाल महाराज ने कहा कि वृक्षः कबहुं नहिं फल भखैः नदी न संचे नीर। परमार्थ के कारनें साधुन धरा शरीर।
हम लोग इतिहास पढ़ते हैं, कुछ लोग इतिहास लिखते हैं, अशोक जी ने भी इतिहास लिखा। अशोक जी के साथ ही एक युग चला गया। उनके संकल्प को पूरा करना ही उन्हें सच्ची श्रद्धान्जलि होगी।
पुण्यभूमि भारत के सपूत भारतीय संस्कृति के ज्ञाता, चिंतक व वैदिक युग के सच्चे प्रतिनिधि अशोक सिंहल जी सारे विश्व के लिए श्रद्धा के पात्र हैं। वृहत्तर भारत में ज्ञान-विज्ञान और शांति सब कुछ के लिए आवाज बुलंद करने वाले अशोक सिंहल जी एक दिव्य तेज से युक्त महामानव थे।
ने अपने शोक संदेश में कहा-मैं उन्हें सलाम करता हूं। उनकी मृत्यु एक बड़ी क्षति है, मैं उनके अनुयायियों और मित्रों को इस शोक की घड़ी में सान्त्वना और शांति की कामना करता हूं। वह तिब्बत के लोगों के हितों का समर्थन करते रहे। मैं जब उनके घर इलाहबाद 2001 के कुंभ मेले में गया था उनके घर में देवानुभूति हुई और उनका व्यक्तित्व भी श्रेष्ठ मानवता के साथ देवत्व को प्रदर्शित करता था।
आज का दिन भारत के लिए बड़े शोक का दिन है।
एक ऐसा चरित्र जो बचपन से ही ईश्वीरय कार्य के प्रति और समाज के उत्थान के लिए समर्पित था, खनन का एक इंजीनियर जिसने बाहर ही नहीं भीतर भी खनन से मनन की यात्रा में भारत और भारत की संस्कृति को विश्व पटल पर पहुंचाया। अशोक सिंहल जी एक ऐसा देव शरीरी पुरुष जिनकी पहली सांस और अंतिम सांस राममंदिर के लिए समर्पित रही। राम मंदिर और राष्ट्र मंदिर दोनों उनके मन में थे। वे हमेशा हमारे लिए जीवित रहेंगे। वे आत्मा से जिए, जीते रहेंगे आत्मावान बनकर। दरिया से समुद्र बनने की यात्रा अशोक जी की है। उनकी कुटिया, उनकी पूजा उनके मानव रूप में भी देव होने का प्रमाण देती है। इस देश के लिए, इसकी खुशी के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। गंगा के साथ वे हरित क्रांति के समर्थक थे। रुद्राक्षरूपी अशोक जी रुद्राक्ष की तरह एकमुखी थे, हमें राष्ट्र व मंदिर के लिए अशोक जी की प्रेरणा सदैव ऊर्जावान बनाए रखेगी।
राज्यसभा सांसद एवं पांचजन्य के संपादक श्री तरुण विजय ने कहा अयोध्या आंदोलन स्मरण करना ही अशोक सिंहल जी की नेतृत्व क्षमता और हिन्दुत्व के पुरोधा वाले व्यक्तित्व के लिए नमन करना है। वे निश्चय के पक्के थे। जब वे दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत प्रचारक थे तब मैं उनके सान्निध्य में संघ कार्यालय मेंं रहा। संघर्ष के बाद वे श्रेष्ठ मुकाम पर पहुंचे और मुझे भी निरन्तर सान्निध्य प्रदान किया। यह डा. हेडगेवार जी की संघ शक्ति की आत्मीयता है जो सबको एक करती है। स्व. रज्जू भैया बहुत से गीतों की धुनें अशोक जी से ही बनवाते थे। अशोक जी उदार हृदय व समदृष्टि वाले व्यक्ति थे। शंकराचार्य जी के साथ सहभोज का आयोजन उनका एक ऐतिहासिक कार्य माना जाता है। समाज के अंतिम व्यक्ति तक में कोई अस्पृश्य नहीं है। काशी में डोम राजा के घर भोजन कर उन्होंने इसे सिद्ध किया। समाज में बनवासियों और दलितों के प्रति अशोक जी के मन में ननाजी देशमुख वाला भाव था कि जिसको हम दलित और अस्पृश्य कहते हैं वे हिन्दू धर्म के अग्रणी रक्षक हैं। मैं अशोक जी की चरण वन्दना करता हूं। कम्बोडिया और थाईलैण्ड में गणेश मन्दिर के लिए आपस में युद्ध हुआ। यूनेस्को ने इस मन्दिर को हेरिटेज की सूची में शामिल किया था। जब मैं सांसद बना तो मुझे अशोक जी ने कहा कि मैं इस मुद्दे को जानने और रास्ता तलाशने के लिए वहां जाऊं। इस प्रकार अशोक जी सारे विश्व को प्रेम से रहने और जोड़ने का कार्य करते रहे।
ने कहा कि अशोक जी जब अयोध्या में आए तो सर्वप्रथम सुग्रीवकिला में ही आए। अशोक जी का देहावसन हिन्दू समाज के लिए लिए बहुत बड़ी क्षति है। जिस कार्य को आगे करके अच्छे लोग नहीं रह पाते। एवं जिस कार्य का उन्होंने श्रीगणेश किया उसे पूर्ण किया जाए।
अशोक जी के जाने से अपूर्णीय क्षति हुई है। वह व्यक्ति से ऊपर अद्भुत अनूठे ओजवान व्यक्ति थे। वे जीवंत व्यक्तित्व एवं विनम्रता के धनी थे। विभिन्न संप्रदायों के आचार्यों को एकमंच पर लाना उनकी सांगठनिक क्षमता और विनम्रता का प्रमाण है। वे अपने स्वाभिमान पर अड़े रहते थे। टस से मस नहीं होते थे। अशोक जी स्वयं में एक संस्था नहीं उससे ऊपर थे। राम मंदिर, गोरक्षा, गीता को प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। हिन्दू मठ-मंदिरों के अधिग्रहण के विरोध में उनके भीतर का सत्य एक सिद्धान्त बनकर उठा और देश के लिए संकल्प को जागृत किया। धर्म और संस्कृति के मानबिन्दुओं की रक्षा ही अशोक जी को सच्ची भावांजलि होगी।
नामधारी समाज विशेषकर गुरु जगदीश जी से अशोक जी का अच्छा सम्बन्ध रहा। न्यूयार्क में विश्व शांति सम्मेलन हुआ था। उसमें अशोक जी की भूमिका और उससे प्रभावित होकर गुरु जगदीश जी ने फिर अशोक जी को पाने का अवसर कभी नहीं छोड़ा।
अशोक जी की जीवनी के लेखक कई वर्षां से उनके निकट रहने वाले सुप्रसिद्ध व्यवसायी श्री महेश भागचन्दका ने कहा कि लगभग 35 वर्षों विचार-परिवार एंव संगठन से जुड़े होने के कारण मुझे अशोक जी का सान्निध्य स्नेह और निकटता प्राप्त रही। यह मेरे लिए बड़े गौरव की बात है। वेदों का प्रचार घर-घर में हो यह उनकी इच्छा थी विश्व की प्रथम कविता रामायण को लिखने वाले आदिकवि वाल्मिकी का एक भव्य मन्दिर बनाने की उनकी इच्छा थी। यह मेरा परम सौभाग्य है कि उन्होंने मुझे अपनी जीवनी लिखने की भी अनुमति दी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत की उपस्थिति में उनका ऐतिहासिक जन्मदिन मनाने की भी सहमति प्रदान की। स्व. अशोक सिंहल जी ने मुझे मानस पुत्र के रूप में स्वीकार किया था।
अशोक जी ने हिन्दू समाज की जो सेवा की वह अद्वितीय है। 1979 में विहिप के हिन्दू सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष रूप में उनकी भूमिका शुरू हुई और उसके बाद वह हम सबका मार्गदर्शन करते रहे। 2005 में मुझे विहिप का जो दायित्व अशोक जी ने दिया वह हमने पूरा किया। ऐसा अद्भूत चरित्र हमारे सामने रहा है। राम मंदिर का कार्य, बोलने की आवश्यकता नहीं है, सरकार पर दबाव बनाने की आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति और भारत मां के लिए जीवन समर्पित कर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अंतिम सांस तक अशोक जी भारत माता की सेवा में लगे रहे। उन्होंने स्वामी विवेकानन्द को आदर्श माना, समरसता के आदर्श उनके डा. अम्बेडकर थे। साधु-संतों और योगी से भी श्रेष्ठ जीवन जीने वाले महापुरुष थे हमारे अशोक जी।
जिन्होंने हमें पाला-पोसा एवं नई दिशा दी उनका चला जाना बड़े दुख की बात है। अशोक जी संत परंपरा के थे। वे पूरी संस्था व संगठन का पर्याय थे। इस देश के अन्दर पितृ श्रेष्ठ संस्कृति के संवाहक थे। वे जब बोलते थे तो लगता था मां भारती अपनी पीड़ा को अशोक जी की वाणी में प्रविष्ट कर गयी हों। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन को सबने देखा, संघर्ष के समय यदि उनके माथे पर रक्त की धारा दिखी तो उसे तौलिए से पोंछते हुए कभी चरण नहीं रुके। राम के नाम के निर्मित वे कभी नहीं रुके और अंतिम संकल्प था उनका राम मन्दिर का निर्माण।
अशोक सिंहल जी एक निस्वार्थ स्वयंसेवक, प्रचारक, उत्कृष्ट राष्ट्रभक्त, सनातन धर्म के धैर्यप्रवण योद्धा होने के साथ समाजसेवा व देशभक्ति के गुणों से पल्लवित थे। उन्होंने देश की संस्कृति, परंपरा, संस्कृत भाषा, गौ, गंगा व वेदपुराण के प्रचार के लिए अपना जीवन लगाया। एसे श्रेष्ठ आचरण वाले महात्मा, चिन्तक, दार्शनिक और महामानव अशोक जी को बारंबार नमन।
जब मैं प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था। उस समय वहां पर रज्जू भैया हमें संघ दृष्टि दिखाने वाले मार्गदर्शक थे। रज्जू भैया अशोक जी से शाखा पर गीत बुलवाते थे। वास्तव में किशोरावस्था से ही अशोक जी के गायन में माध्वीयता और ओज का भाव था। अशोक सिंहल जी संघ के एक व्रती स्वयंसेवक थे। वे आध्यात्मिक के तत्परता के साथ जितने भी आंदोलन थे उनमें बढ़चढ़ कर भाग लेते थे। सारी धाराएं और क्षेत्र कृण्वन्तो विश्वमार्यम की भावना के साथ चले और समूचा विश्व आध्यात्मिक बने, यही उनकी सोच थी। वास्तव में विश्वबन्धुत्व की भावना भारत ही दे सकता है। राम भारत में बसते हैं और यह भाव अर्थात् मनुष्य का निर्माण का एक दूसरे के निर्माण से जुड़ा है। परस्पर एकता, बन्धुत्व, स्थायित्व और अपनी शक्तियों, इतिहास, संस्कृति और गौरव को समझकर भारत विश्वगुरु था और रहेगा, यह भाव अशोक जी ने जगाया। ऐसा साहस अशोक जी जैसे योद्धा ही दिखा सकते थे। शंकाग्रस्त लोग कभी आगे नहीं बढ़ सकते, वेद पाठशालाओं, गौ, गंगा, संस्कृत व भारतीयता पर उनकी दृष्टि एक थी। सारे लोगों को एक मंच पर एकत्रित करने की अनूठी कला उनमें थी। ऐसे कुशल संगठन शिल्पी श्रेष्ठ आचरण वाले व्यक्ति दुनिया में कभी-कभी ही अवतरित होते हैं। आज वैचारिक अन्तराल को भरने का समय है।
हिन्दू हृदय सम्राट, हिन्दू गौरव के पुरोधा, विहिप को घर-घर, गांव-गांव पहुंचाने वाले, राम मन्दिर आन्दोलन के सेनापति और संत अशोक सिंहल जी हमारी और हिन्दू समाज की प्रेरणा रहें। पश्चिमी दर्शन के प्रभाव के कारण भारत की राजनीति से धर्म की विदाई का प्रयास हो रहा था लेकिन अशोक जी ने अपने दम पर धर्म की पुनः स्थापना की। उनका स्वप्न छुआ-छूत मुक्त भारत था। अशोक जी ने काशी के डोम राजा के घर पर सामूहिक भोज में जो आदर्श प्रस्तुत किया वह अद्वितीय है। 15 वर्ष पहले अविरल गंगा, निर्मल गंगा का अभियान हो चाहे एक लाख से ज्यादा अर्चकों का प्रशिक्षण, हिन्दू विजय दिवस का संकल्प हो इन सबको नई दिशा दी। 1984 की धर्म संसद में अशोक जी ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया। और जिस राम के निमित लगाया आजीवन उसी के प्रति समर्पित रहे। उन्होंने कभी भी हिन्दूओं का गौरव झुकने नहीं दिया। ऐसे श्रेष्ठ सेनापति को मैं हृदय से श्रद्धांजलि देता हूं।
अशोक जी मेरे गुरु थे। पिछले 8 वर्ष से मैं निरन्तर उनके साथ रहा। 19वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय संस्कृति को अलग पहचान दी, तो रामजन्मभूमि के माध्यम से हिन्दुत्व को अशोक जी ने विश्व में फैलाया। अशोक जी की विचारधारा थी कि एक-एक संत यदि एक गांव को अपना ले तों देश गरीबी और अज्ञान से मुक्त होकर सम्पन्न और शिक्षित हो जाएगा। अशोक जी के जीवन में एक परमतत्व विद्यमान था। उनके चेहरे पर कभी मायूसी नहीं रही। उनका जीवन आध्यात्मिक था।
अशोक सिंहल जी के जीवन में एक ईश्वरीय तत्व था उनका जीवन आध्यात्म से युक्त था। एक श्रेष्ठ आचरण युक्त जीवन के चलते वे हमेशा हिन्दू समाज के पथ प्रदर्शक बनें रहे। हमेंशा उनमें स्वाभिमान और आत्मविश्वास बना रहा। उन्होंने हिन्दू स्वाभिमान के जिस आंदोलन को पकड़ा उसे अथ से इति तक पहुंचाया।
वस्तुतः अशोक जी से मेरा कोई प्रगाढ़ सम्बन्ध नहीं था किन्तु नागपुर के प्रांत प्रचारक होने के नाते मैं संघ शिविरों में जाता था, बंगलौर में एक वर्ग था, जब वे दिल्ली के प्रांत प्रचारक के नाते एक विशेष बैठक में उपस्थित दिखे थे। और इसी बैठक में उन्हें दायित्व दिया गया विहिप में कार्य करने के लिए। उनके विहिप में जाने के बाद उनकी कार्यक्षमता और संगठन कौशल अधिकाधिक बढ़ा। इंग्लैण्ड में मुझे ‘एक बार भेजा गया था। वहां अशोक जी भी थे। बी.सी.सी ने उनका इंटरव्यू लिया। उन्होंने कहा मुझे आपके प्रश्नों के उत्तर नहीं देनें, मैं अपनी बात रखने आया हूं’। और वास्तव में हमने देखा आधे घण्टे में उन्होंने विश्व को एक बड़ा संदेश दे दिया। अशोक जी का जाना हम सबके लिए एक अपूर्णीय क्षति है। अशोक जी ईश्वरीय शक्ति प्रदान व्यक्ति थे। 10 नवम्बर को जब उन्होंने मुझे अस्पताल में बुलाया तो मुझे आभास हो गया था कि अब शायद अशोक जी ज्यादा नहीं चल पाऐंगे। कुल मिलाकर एक घण्टे की हमारी बातचीत हुई, जिसमें 40 मिनट तक उन्होंने ही बोला होगा। अशोक जी ने रामजन्मभूमि और वेदों के संरक्षण की बात कही। डा. मुरलीमनोहर जोशी ने जैसा कहा कि हम सूर्य तो नहीं बन सकते लेकिन दीपक बनकर अंधेरा तो मिटा सकते हैं। धर्म संस्कृति का सम्मान हो, दीन-दुखियों को दुखों से बाहर निकालने का प्रयास हो। यही अशोक जी की इच्छा थी। उन्होंने भारतमाता की भक्ति के गीत गाए। कॉलेज के दिनों से ही अपने जीवन व व्यक्तित्व को वज्रादपि कठोराणि बनाया। जब वे गरजते थे तो सज्जनों को आनन्द और दुर्जनों को भय होता था। निर्मल निश्कलंक, प्रेम व करुणा के प्रतीक अशोक जी मर्यादा को ही धर्म मानते थे। वे कहते थे सब कुछ ईश्वर करवा रहा है मैं तो बस निर्मित हूं। अशोक जी का संकल्प एक-एक व्यक्ति का संकल्प है। कार्य को परिणाम तक पहुंचाने के प्रयत्न होनें चाहिए। अशोक जी ने सोच-समझकर अपने जीवन को बनाया था। हमें उनका अनुकरण करना चाहिए। श्रद्धांजलि सभा के अन्त में अशोक जी के भतीजे सलिल बंसल ने सबका धन्यवाद ज्ञापन किया।